IAS कृष्ण कांत पाठक : आहार चुनने की बात नहीं.. निरीह जीवों के संहार छोड़ने की बात..

सुना है, बहुत औपचारिक दिवसवादी हुई दुनिया में 1 अक्टूबर को विश्व शाकाहार दिवस घोषित किया गया है। बहुत पहले कोई लोकोक्ति-सी सुनी थी- सौ दिन सास के, एक दिन बहू का। कुछ-कुछ वैसा ही लगता है।

शाकाहारिता अब शुद्ध माइनॉरिटी है। भक्षक व हत्यारे मेजोरिटी में हैं, हम उनकी ही बनायी दुनिया में जीने के लिए बाध्य हो गए हैं।

कल दो मित्रों के साथ सहभोज पर जाना हुआ। हम दो निरामिष थे, एक सामिष था। एक पारंपरिक व व्यक्तिगत रूप से शाकाहारी मित्र ने दूसरे से कहा- तुम नॉन-वेज लेना चाहो, ले लो। मांसाहार मित्र का कोई आग्रह न था। मैंने कहा, मैं न खाता नहीं और मेरे साथ खाने भी न दूँगा। शाकाहारी मित्र ने पुनः उससे कहा- नहीं, मुझे दिक्कत नहीं, तुम नॉन-वेज लेना चाहो, ले लो। मैं चकित रह गया। कैसा यह शाकाहार है, जो मांसाहार के प्रति प्रेरक बन गया है। वैसे तो सहिष्णुता भी कौन सा हृदय परिवर्तन करती है। लेकिन कोई अहिंसावादी होकर भी मैत्री के लिए ऐसे औपचारिक, प्रेरक व सहिष्णु क्यों बनना चाहेगा?

बहरहाल मांसाहारी मित्र मेरा आग्रह मान गए। सांत्वना के लिए यह भी कह दिया कि हो सका, तो सदा के लिए मांसाहार छोड़ देंगे। यकीन नहीं, क्योंकि मांस की भी अपनी मदिरा है। सामने आ जाए, तो छूटता ही नहीं।

वस्तुतः स्वाद का भी अपना मानसिक साहचर्य है, उसकी अपनी मेंटल कंडिशनिंग है। जिसने बचपन से या फिर दीर्घ काल तक जो खाया है, वही उसका अभ्यस्त स्वाद बन गया है। सर्वथा नया व्यंजन, नया मसाला, नया तेल पहले-पहल विकर्षित ही करता है।

याद आता है, जब पहली बार किसी ने मुझे केर-सांगरी की सब्जी दी थी। सब्जी जैसी दिखी ही नहीं, सो रुची ही नहीं। मुश्किल से खा सका था, लेकिन फिर बारंबार के बाद वही रुचिर लगने लगा। यही बात बाजरे के खिचड़े के साथ भी हुई। दक्षिण भारत के व्यंजन के साथ भी हुआ। मैगी नूडल्स के साथ भी हुआ।

करोड़ों लोग मांसाहारी इसलिए हैं कि उनके मुंह में उसका जायका बैठ गया है। वे परंपरा से वही बहुलता से या हर उत्सव पर खाते रहे हैं, इसलिए उसका जायका दूसरे व्यंजनों पर जाने ही नहीं देता। इसलिए वेगन मीट के विकल्प बनने लगे हैं। सोया, शलगम, सूरन, मशरूम, कटहल, पनीर इसलिए लोकप्रिय हो रहे हैं, क्योंकि उसमें कुछ उसका जायका है।

यह जायका किसी के लिए छलमय आभास भर हो सकता है, किसी के लिए जुगुप्साजनक भी, लेकिन वे ही अभी अंतिम आशा हैं, प्रतिवर्ष क्रूर रूप में मारे जा रहे करोड़ों पशु-पक्षियों के लिए और मारने के लिए पाले जा रहे करोड़ों पशु-पक्षियों के लिए।

बहुत दिनों तक तथाकथित आधुनिकतावादी व प्रगतिशील जन व्रत को स्वास्थ्य के विरुद्ध होने का उद्घोष कर हमें पिछड़ा मानते थे। जब फास्टिंग, इंटरमिटेंट फास्टिंग के स्वास्थ्यवर्धक गुण खोजे गए, वे मौन हो गए। जब ऑटोफैगी से कैंसर मुक्ति पर नोबल मिला, तो वे मौन हो गए। अब जब व्रताहार को सर्वाधिक स्वास्थ्यवर्धक माना जाने लगा, तब भी वे मौन हैं। निर्मल या विशुद्ध शाकाहार के संबंध में भी यही हो रहा है।

विश्व के लिए भारत एक आशा है, सृष्टि के लिए सनातन परंपरा एक आशा है, वृहत्तर मानव समुदाय के लिए विशुद्ध श्रमण परंपरा एक आशा है। हमारी दया ही एकमात्र आशा है कि बाड़े बूचड़खाने बनने के लिए नहीं बने। हमारी करुणा ही एकमात्र आशा है कि जिसे तुमने शावक की तरह पाला, उसकी गर्दन पर चाकू रखने में तुम ठिठक जाओ। हमारी मानवीयता ही एकमात्र आशा है कि जिसे तुमने तोते की तरह पाला, उसके पंख उधेड़ कर आध सेर की मुर्दा लुग्दी बनाने में तुम ठहर व सिहर जाओ। हमारी शाकाहारिता ही एकमात्र आशा है कि जिस प्रकृति में तुम्हें श्रेष्ठ बुद्धि देकर भेजा गया, उसे तुम निकृष्ट-हृदय बनने में शर्म खाओ। इस नक्कारखाने में यह पुकार एकमात्र क्षीण आशा है कि प्रति पल बर्बरतम रूप में मारे जा रहे जीवों की मुमूर्षु चीत्कार सुन पाओ।

और यह भी कि मांसाहार से छोड़ने की बात बस आहार चुनने की बात नहीं, वह संहार छोड़ने की बात है, निर्बल की, निरीह की। मेरे मानव, तुमसे आशा नहीं, तुम्हारी मानवता से आशा है।

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